Monday, April 15, 2019

आखिरी खता

थोड़ा इश्क मुझे अता कर देना।
धोखा  भी  मुझे  बता  कर देना।।

तेरे गमों की आदत हो गई कदर।
खुशियां  भी अब  सता कर देना।।

ना है, ना था, ना होगा इश्क तुझे।
हुआ तो अहसान जता कर देना।।

चोटें सजी मेरे जहन-ओ-जिस्म पे।
कफ़न  भी  मुझे  सजा  कर देना।।

जहां  वाकिफ  है  तेरे  सारे गुनाहों से।
मुझे कत्ल कर आखिरी खता कर देना।।

Monday, May 21, 2018

जो वादा करके मुकर गई

क्या लिखूं उस प्यार के किस्से को,
एक बैठक थी, जो गुजर गई...

क्या लिखूं उस दर्द के मस्से को,
एक चीख थी, जो बिखर गई...

क्या लिखूं उस याद के हिस्से को,
एक रात थी, जो ठहर गई...

क्या लिखूं उस बेदर्द के जज़्बे को,
एक दारू थी, जो उतर गई...

क्या लिखूं गगन-ए-इश्क़ सच्चे को,
जो वादा करके मुकर गई...
- गगन 'रज'

Wednesday, May 9, 2018

प्यार हुआ कहाँ है

दर्द कहाँ है, दवा कहाँ है|
कातिल ही पुंछ रहा है, वार हुआ कहाँ है|

यूँ ही आँखे झुका ली तुमने, 
अभी तो नज़रे मिली है, इज़हार हुआ कहाँ है||

मज़े के लिए सब्र रख थोड़ा,
अभी इश्क़ - ए - जुनून, सवार हुआ कहाँ है||

तुम तो अभी से ही रो दिए,
गुस्ताखियों का पलट-वार हुआ कहाँ है||

सारे गहने पहने फिर भी,
तेरी सादगी का असल शृंगार हुआ कहाँ है||

फिर नाज़ुक अदाओं से सज जा,
अंदाज़-ए-नज़ाकत बेकार हुआ कहाँ है||

फिर एक पल की इज़ाज़त दे दे,
ये शुरूवात थी, बाकी प्यार हुआ कहाँ है||

- गगन 'रज'

Tuesday, May 8, 2018

झोलियां खाली ही देखी है मैंने आमिरों की|

गर्दिश सितारों की हो, या तबाही लकीरों की।
झोलियां खाली ही देखी है मैंने आमिरों की।।


वो गमों में भी खुशी का सुरूर मनाते रहे।
बेपरवाह सुकून ए ज़िन्दगी है फकीरों की।।


बैठा था श्मशान में मुझे आजाद करने को।
मैं कद्र करता रहा, दुनियावी जंजीरों की।।


दौलत ए जहां लूटकर भी वो खाली ही गए।
तरसती मौत अाई ऐसे जावाज़ वजीरों की।।


और भी बहुत है दौलत ए सुकुं की दौड़ में।
क्या सुनाए दास्तान गुमशुदा राहगीरों की।।


क्या ठिकाना रहा है ज़िन्दगी का, ऐ गगन।
खाली हो चली तरकश सांसों वाले तीरों की।।

- गगन

Friday, April 6, 2018

तुझ बिन

तुझ बिन,
घर, घर तो है मगर सुना-सा|
तन्हाइयों की आग मे अध-भूना सा||
रोज़ सुबह,
वजह बे-वजह,
कानो मे गूँजती तेरी अंगड़ाईयाँ|
खाली पड़े बिस्तर पर सलवटो की दुहाईयाँ||
भूल गये तेरी खुशबू,
ये तकिये और ये रज़ाईयाँ||
बुलाते है तुझे,
जैसे कई सादिया बीत गयी,
और करते है तेरा इंतज़ार,
रसोई के वो सारे बर्तन,
जो तेरे हाथो के चुंबन से खनकने लगते थे|
तेरी आहट आते ही, खुद-ब-खुद बजने लगते थे||
दो प्याली चाय के लिए रोज़ निकालता हूँ|
एक तो भर जाती है मगर दूसरी खाली पाता हूँ||
कुछ आदतें मेरी ज्यों की त्यों है,
लगता है मेरे पीछे तू घर साफ कर लेगी|
हाथ मे टिफिन और एक रुमाल दे देगी||
मगर जब देखता हूँ तो खुद जो तन्हा पाता हूँ|
अपनी ही आदतो पर बोखलाता हूँ||
जाने कैसे संभालती है तू ये घर,
सुबह,
उथल-पुथल,
यहाँ-वहाँ,
कहीं भी चीज़ें छोड़ जाता था|
मगर शाम को हर चीज़ जगह पर पाता था||
पर अब वो बातें सोचकर भी अज़ीब लगती है,
जो चीज़ सुबह जहाँ पड़ी थी वो वही पड़ी मिलती है,
जाने कैसे,
घर के हर कोने को तेरी आदात हो गयी|
ज़र्रे-ज़र्रे
की तू मानो एक बेशक़ीमती अमानत हो गयी||
कुछ लाया था नया समान घर में,
लगता है वो भी मगर जूना-सा|
तुझ बिन,
घर, घर तो है मगर सुना-सा|
तन्हाइयों की आग में अध-भूना सा||

Tuesday, February 13, 2018

हसरत-ए-खुदाई

बेबसी का आलम था, महफ़िल में तन्हाई थी|
ग़ज़लें मेरी बिखरी थी, रो  रही  रुबाई  थी||

तेरे लबों की मिठास ने एक जादू-सा किया|
रत्ती-रत्ती, जर्रा-जर्रा सारी खुशियाँ छाई थी||

लबों पर रखी दुआए पल में पिघल गयी थी|
जब तेरी गर्म साँसे मेरी साँसों में समाई थी||

फिर रहा ना गगन तू रग-रग में घुल गयी|

मानो पूरी हुई जो अधूरी हसरत-ए-खुदाई थी||