क्या लिखूं उस प्यार के किस्से को,
एक बैठक थी, जो गुजर गई...
क्या लिखूं उस दर्द के मस्से को,
एक चीख थी, जो बिखर गई...
क्या लिखूं उस याद के हिस्से को,
एक रात थी, जो ठहर गई...
क्या लिखूं उस बेदर्द के जज़्बे को,
एक दारू थी, जो उतर गई...
क्या लिखूं गगन-ए-इश्क़ सच्चे को,
जो वादा करके मुकर गई...
एक बैठक थी, जो गुजर गई...
क्या लिखूं उस दर्द के मस्से को,
एक चीख थी, जो बिखर गई...
क्या लिखूं उस याद के हिस्से को,
एक रात थी, जो ठहर गई...
क्या लिखूं उस बेदर्द के जज़्बे को,
एक दारू थी, जो उतर गई...
क्या लिखूं गगन-ए-इश्क़ सच्चे को,
जो वादा करके मुकर गई...
- गगन 'रज'
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