Monday, February 27, 2017

गुस्ताखियाँ

गुस्ताखियाँ तो होगी, कभी ज़्यादा कभी कम|
ये आँखियाँ तो रहेगी, कभी सुर्ख कभी नम||

मेरे हाथ में नहीं है, तुझे समझ पाना दोस्त|
मुक़द्दर के आसरे है, कभी खुशी कभी गम||

ज़र्रे-ज़र्रे में छिपा है बेइंतहा इश्क़ का नशा|
बेपर्दा होकर देख पाक-ए-मोहब्बत को सनम||

कुछ तो बात होगी हम लोगो के दरमियाँ|
यूँ ही नहीं संग मिल जाते ज़मीं-ओ-गगन||

Friday, February 24, 2017

तेरी बेवफ़ाई

😢
तूने बे-आबरू होकर हर चीज़ मुझे दी|
लेकिन उसमें पाक इश्क़ की कमी थी||

तेरे ख्याबों ने तो छू लिया आसमाँ को|
मगर पैरों तले तो मेरी हथेली जमी थी||

यूँ रो पड़े मैखाने मेरे दर्द को सुनकर|
झलकते पैमानों की आँखो में नमी थी||

जब बज रही थी शहनाई तेरी गलियों में,
मेरी रहगुजर में ज़नाज़े की गमी थी||

क्या दुहाई दे तेरी बेवफ़ाई की गगन|
गैरों ने सजाया घर जहाँ मेरी ज़मीं थी||
 😢

Thursday, February 16, 2017

तेरा सुरूर

👯
दिखा तेरा सुरूर कभी अर्श पे तो कभी फर्श पे,
लूटा है सारा जहाँ तेरे एक दीदार-ए-दर्श पे|
यूँ झलका दे अबसार को अपने रुखसार पे,
मरहम जैसा करेगा असर किसी के मर्ज़ पे||
👯


Monday, February 13, 2017

बाज़ी-ए-इश्क़

💑
यूँ तो शहादत बहुत दी, कभी बाज़ी-ए-इश्क़ लड़कर तो देखो|
कत्ल होगा एक झलक में, हुस्न पे ज़रा-सा मरकर तो देखो||

वो आए इश्क़ समझाने हमें, कभी खुद भी इश्क़ समझकर तो देखो|
क्या समझेगी शमा जुदाई-ए-गम को, कभी परवाने-सा जलकर तो देखो||

खोए है हम यार-ए-इश्क़ में, तुम भी यारा थोड़ा खोकर तो देखो|
गर होश ना आए तो दफ़ना देना, ज़रा इश्क़ की कब्र में सोकर तो देखो||

हर जगह मैं ही दिखूंगा तुम्हे, ज़रा ज़मीं से गगन होकर तो देखो|
यूँ तो शहादत बहुत दी, कभी बाज़ी-ए-इश्क़ लड़कर तो देखो|
💑

Thursday, February 9, 2017

ख़ुदग़र्ज़

khudgarz
👾
दवाएँ दर्द देने लगी, हवाएँ सर्द होने लगी|
कैसे करे भरोसा, दुनिया ख़ुदग़र्ज़ होने लगी|

कल तक देते थे ताना जिन मुलजिमों को,
आज हमारी हस्ती भी उनमें दर्ज़ होने लगी|

जो सुकून से आया करती थी जिस्म में मेरे,
आज वो साँसें भी हम पर कर्ज़ होने लगी|

किस वक़्त की करे आरजू नादां-ए-गगन,
मेहरवाँ तकदीर भी अब गर्द होने लगी|
👾

Tuesday, February 7, 2017

अल्फ़ाज़

शिद्दत से बुने मेरे ज़ज़्बात समझ लो|
बे-ज़ुबान दिल के सारे अल्फ़ाज़ समझ लो||

ताजमहल तो नहीं है तोफे में मगर|
हमें शाहजहाँ और खुद को मुमताज़ समझ लो||

हम दूर ही सही लेकिन अलहदा नहीं है|
मेरी खुशबू को ही अपनी मुलाकात समझ लो||

लफ़्ज़ों से बुना है इज़हार का आईना,
मोहब्बत-ए-गगन की इसे सौगात समझ लो||

Monday, February 6, 2017

पंखुड़ी गुलाब की..

🌹
क्या दूं मिसाले मैं अपने जनाब की|
वो तो है नाज़ुक पंखुड़ी गुलाब की||

हज़ारों है सवाल इश्क़ की राह में|
ज़रूरत मुझे है बस उनके जवाब की||

आहिस्ता से छूना बिखर ना जाए कहीं|
कीमत ज़िंदगी है तौफा-ए-नायाब की||

रग-रग में समाई है रूहानी खुशबू|
रंगत चढ़ती है जैसे मदहोशी शराब की||

कैसे करे बयाँ गगन तेरे हुनर को|
कभी अदा-ए-सादगी तो कभी रुबाब की||

क्या दूं मिसाले मैं अपने जनाब की|
वो तो है नाज़ुक पंखुड़ी गुलाब की||
🌹