Tuesday, November 28, 2017

हमारी गुस्ताखियों के किस्से|


तबज्जू दे मेरी सदाओ को, हमारी गुस्ताखियों के किस्से इनमें है|
कुछ अदा, कुछ सदा, कुछ हया, कुछ बे-हयाई के हिस्से इनमें है|

हुए थे हमारे ज़ज़्बात जवां, जिश्म में जलजले से उफनते थे|
दिलकश नूर, कातिलाना जुनूं, गिरते पसीने से गुल सुलगते थे|

निगाहों के घेरो में बँधा, हमारी जवानी का गहरा समंदर था|
पहले बाहें, फिर कुछ आहें, फिर कराहों का दर्दीला मंज़र था||

खो दिया था दुनियाँ को, उन चार पलों के अहसासों में|
थोड़ा दर्द, उस पर मर्ज, फिर छाई थकावट इन सांसो में||

वक़्त फिसलता जाएगा, वो खता-ए-इश्क़ उभर के आएँगी|
तुझे पता, मुझे पता, गगन से ज़मीं फिर ना मिल पाएँगी||

                                                                               - गगन 'रज़'

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