मेरा
जहन भरा सवालो से,
जाने
कैसे उत्तर पाऊँ?
देखूं
जब इस जहां की हालत,
मनुष्य
मूरख पर हर्षाऊं|
कुछ को
देखा ज़मीन बिछाते,
गगन सुहानी
चादर ताने|
कही दिखा
चमकीला बिस्तर,
होता
मखमल कुछ सिरहाने|
पर असलियत
की तह मे सोचो,
किसने
नींद के मायने जाने?
कही दिखा
खाने का ढ़ेर,
फैके
सुबह-शाम-अंधेर|
कही भली
दो सुखी रोटी,
मिल जाए
जो देर-सवेर|
पर असलियत
की तह मे सोचो,
रोग रहे
है किसको घेर?
कोई बनाए
ऊँचे मकान,
हर कमरे
में एक इंसान|
कई लोग
रहते एक में,
जहाँ
व्यापे प्रेम और मान|
पर असलियत
की तह मे सोचो,
किस घर
बसे भगवान?
जिश्म
दिखे नग्न-दरारों में,
संदुकें
वस्त्र हज़ारों में|
कही चिथडन
में सुकून दिखा,
पड़ा
हुआ गलियारों में|
नसीब
में लेकिन वही कफ़न है,
मिला
जो हट-बाज़ारों में|
आए हमसब
इस दुनिया में, खाली हाथ ही जाना है|
ना हो
गर्व इस माया का, दिल के भेद मिटाना है|
करूँ
सवाल अंतिम पंक्ति में,
क्या
खोना क्या पाना है?
-गगन 'रज'
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