Thursday, December 15, 2016

मेरे शब्दों की शुरुआत है ये|


भाषा धरती के भीतर, कुछ अक्षर मैंने बोये थे,
देख रंगीले सावन को, कुछ प्यारे शब्द संजोये थे |
रत्ती रत्ती कतरा कतरा, मैंने अल्फाजो से सींचा था,
लम्हा लम्हा थोड़ा थोड़ा, जब जज्बातों को खींचा था |
जाने अनजाने लगता है, मानो कल की बात है ये,
मेरे शब्दों की शुरुआत है ये ||

नहीं जानता व्याकरण को, नहीं साहित्य का ज्ञान मुझे,
क्या है गीत, क्या है कविता, नहीं तुको का ध्यान मुझे |
शब्दों की चाहत में बैठा, हरदम लिखता रहता हूँ,
शीर्षक की आशा में मानो, कलमें घिसता रहता हूँ |
नहीं उजाले बोली के, काली अँधेरी रात है ये,
मेरे शब्दों की शुरुआत है ये ||

गाफिल हुआ बैठा हूँ मानो, ग़ज़ल की ना परछाई मिली,
कैसा शेर, कैसी शायरी, ना ही कोई रुबाई मिली|
बेखुदी की हद को चीरा, हर लम्हे में बर्बाद हुआ,
अल्फाजों की चादर फाड़ी, पर एक ना लफ्ज़ आबाद हुआ |
कब तज़ूरबा आयेगा, बस इतनी सी बात है ये,
मेरे शब्दों की शुरुआत है ये ||


-गगन 'रज'

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