भाषा धरती के भीतर, कुछ
अक्षर मैंने बोये थे,
देख रंगीले सावन को, कुछ
प्यारे शब्द संजोये थे |
रत्ती रत्ती कतरा कतरा,
मैंने अल्फाजो से सींचा था,
लम्हा लम्हा थोड़ा थोड़ा,
जब जज्बातों को खींचा था |
जाने अनजाने लगता है, मानो
कल की बात है ये,
मेरे शब्दों की शुरुआत है ये ||
नहीं जानता व्याकरण को,
नहीं साहित्य का ज्ञान मुझे,
क्या है गीत, क्या है कविता,
नहीं तुको का ध्यान मुझे |
शब्दों की चाहत में बैठा,
हरदम लिखता रहता हूँ,
शीर्षक की आशा में मानो,
कलमें घिसता रहता हूँ |
नहीं उजाले बोली के, काली
अँधेरी रात है ये,
मेरे शब्दों की शुरुआत है ये ||
गाफिल हुआ बैठा हूँ मानो,
ग़ज़ल की ना परछाई मिली,
कैसा शेर, कैसी शायरी, ना
ही कोई रुबाई मिली|
बेखुदी की हद को चीरा, हर
लम्हे में बर्बाद हुआ,
अल्फाजों की चादर फाड़ी,
पर एक ना लफ्ज़ आबाद हुआ |
कब तज़ूरबा आयेगा, बस इतनी
सी बात है ये,
मेरे शब्दों की शुरुआत है ये ||
-गगन 'रज'
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