Wednesday, December 28, 2016

यादों का श्रृंगार

आँखों को आँसुओं से तार-तार करता हूँ,
तुझे चाहने का गुनाह बार-बार करता हूँ!

गुज़रता वक़्त किसी बवंडर से कम नहीं,
टूटी कश्ती पर बैठ मझधार पार करता हूँ!

तेरी रुसवाईयों के मैखाने से घिरा हूँ,
तन्हाईयों के साथ पैमाने चार करता हूँ!

कभी तो लौटेगा तू देखने हाल-ए-गगन,
हर रोज तेरी यादों का श्रृंगार करता हूँ!

Tuesday, December 27, 2016

इश्क़ का रंग

कोई तो रंग चढ़ा दे मुझ पर ए खुदा,
इस रंगीन दुनिया में, बेरंग जीना मुश्किल है!!

कुछ लफ्ज़ है उधड़े हुए अल्फाज़ों के साथ,
सुरों के धागों से इन्हे सीना मुश्किल है!!

आरामी से गुज़रता है सर्द-जाड़ों का मौसम,
हाय! ये बेदर्द सावन का महीना मुश्किल है!!

तन्हाईयाँ ले जाती है मुझे मैखाने की ओर,
बेरंग दर्द-ए-दिल के शराब पीना मुश्किल है!!

चढ़ा दे इश्क़ का कुदरती रंग 'गगन' पर,
बिना रहगुज़ार साथी के जीना मुश्किल है!!

Monday, December 26, 2016

माँग का सिंदूर

कुछ तो तेरी सांसो ने गुफ्तगू की होगी,
वरना मेरी सांसो में यूँ आवाज़ ना होती|
बेख़बर इस दुनिया से तूने इशारा दिया,
वरना ज़िंदगी में सुर-ओ-साज़ ना होती||

इबादत तो हज़ारों ने की तुझे पाने की,
मगर मेरी इबादत खुदा को मंजूर हुई है|
तेरी बाहों की गर्मी में डूबकर ए सनम,
मेरी रूह की तन्हाईयां कोसो दूर हुई है||

मेरी फ़ितरत में नहीं इश्क़ को संभालना,
लेकिन तेरे हुस्न के आगे मजबूर हूँ|
खुदा की कारीगारी बस तेरी ही उपमा है,
इसलिए मैं तेरी माँग का सिंदूर हूँ||
                                                         - गगन 'रज'

Monday, December 19, 2016

मोबाहिसह

वो बातें भी तेरी थी, वो रातें भी तेरी थी|
कैसे भूलु प्यार भारी सौगातें भी तेरी थी||

वो बाग भी तेरा था, वो राग भी तेरा था|
पल में जल उठा वो चिराग भी तेरा था||

आयत भी तेरी थी, इनायत भी तेरी थी|
तारीफों के पीछे कुछ शिकायत भी तेरी थी||

वो सूरत भी तेरी थी, वो सिरत भी तेरी थी|
ख्याबों के पुलिन्दो में हक़ीकत भी तेरी थी||

ख्वाहिश भी तेरी थी, नुमाईश भी तेरी थी|
महफ़िल-ए-गगन में मोबाहिसह भी तेरी थी||

- गगन 'रज'

Thursday, December 15, 2016

मेरे शब्दों की शुरुआत है ये|


भाषा धरती के भीतर, कुछ अक्षर मैंने बोये थे,
देख रंगीले सावन को, कुछ प्यारे शब्द संजोये थे |
रत्ती रत्ती कतरा कतरा, मैंने अल्फाजो से सींचा था,
लम्हा लम्हा थोड़ा थोड़ा, जब जज्बातों को खींचा था |
जाने अनजाने लगता है, मानो कल की बात है ये,
मेरे शब्दों की शुरुआत है ये ||

नहीं जानता व्याकरण को, नहीं साहित्य का ज्ञान मुझे,
क्या है गीत, क्या है कविता, नहीं तुको का ध्यान मुझे |
शब्दों की चाहत में बैठा, हरदम लिखता रहता हूँ,
शीर्षक की आशा में मानो, कलमें घिसता रहता हूँ |
नहीं उजाले बोली के, काली अँधेरी रात है ये,
मेरे शब्दों की शुरुआत है ये ||

गाफिल हुआ बैठा हूँ मानो, ग़ज़ल की ना परछाई मिली,
कैसा शेर, कैसी शायरी, ना ही कोई रुबाई मिली|
बेखुदी की हद को चीरा, हर लम्हे में बर्बाद हुआ,
अल्फाजों की चादर फाड़ी, पर एक ना लफ्ज़ आबाद हुआ |
कब तज़ूरबा आयेगा, बस इतनी सी बात है ये,
मेरे शब्दों की शुरुआत है ये ||


-गगन 'रज'