एक
ठंड का मौसम था,
कुछ कुदरती नज़ारे बरस रहे थे|
कुछ शिथिल सी पड़ी गीली लकड़िया थी|
एक बेसुद सा पड़ा नीला दरिया था|
कुछ रोती हुई ओस की बूंदे थी|
एक बिखरे सपनो-सी टूटी चारपाई थी|
हवाओं मे भी कोई राग नहीं था|
फूल भी ठंड की ठुठरन से कांप रहे थे|
कुछ कुदरती नज़ारे बरस रहे थे|
कुछ शिथिल सी पड़ी गीली लकड़िया थी|
एक बेसुद सा पड़ा नीला दरिया था|
कुछ रोती हुई ओस की बूंदे थी|
एक बिखरे सपनो-सी टूटी चारपाई थी|
हवाओं मे भी कोई राग नहीं था|
फूल भी ठंड की ठुठरन से कांप रहे थे|
पर
उसकी एक आहट ने नज़ारा बदल दिया|
मानो ठंड की परत सिमट सी गयी|
नज़ारो में नयी जान सी आ गयी|
कम्सीन-सी लकड़ियो में जवानी जाग उठी|
बेहोश दरिया मानो लहरो की अंगड़ाईया लेने लगा|
ओस की बूंदे अमृत बनकर बरसने लगी|
नये सपनो की बुनियाद रखी जाने लगी|
हवाए नये तराने सुनाने लगी|
फूलों की महक से सारा आलम खिल उठा|
मानो ठंड की परत सिमट सी गयी|
नज़ारो में नयी जान सी आ गयी|
कम्सीन-सी लकड़ियो में जवानी जाग उठी|
बेहोश दरिया मानो लहरो की अंगड़ाईया लेने लगा|
ओस की बूंदे अमृत बनकर बरसने लगी|
नये सपनो की बुनियाद रखी जाने लगी|
हवाए नये तराने सुनाने लगी|
फूलों की महक से सारा आलम खिल उठा|
सोए
हुए जाज़वतो को वो पल में जगा गयी|
उसकी एक आहट मौसम में आग लगा गयी|
उसकी एक आहट मौसम में आग लगा गयी|
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गगन 'रज'