बीत गयी उमर मुझे हवा क्यों ना लगी|
मेरे नासूर पर कोई दवा क्यों ना लगी||
कत्ल किया उसने मेरे सकून-ए-दिल का|
फिर भी उस पर कोई दफ़ा क्यों ना लगी||
क्यों खेलता है खुदा मुक़द्दर-ए-गगन से|
पहली मुलाकात में वो बेवफा क्यों ना लगी||
आशियाना बनाए बैठे है मेरी कब्र के सामने|
ज़ालिम को नफ़रत-ए-बददुआ क्यों ना लगी||
की थी दुनियावी इबादत उसने कब्र पर आकर|
हिलते लवो में असली ज़ुबाँ क्यों ना लगी||
ज़िंदगी क्या, मौत में भी सुकून नहीं गगन को|
माँगी थी तूने कभी वो दुआ क्यों ना लगी||